Kamakhya Mandir: रहस्यों से भरा है कामाख्या देवी मंदिर, पूरे साल लगा रहता है अघोरियों का तांता; जानें कहां है स्थित
मेरा सनातन, डेस्क। कामाख्या देवी मंदिर का नाम तो आपने बहुत सुना होगा लेकिन आज हम आपको बताने जा रहे इस मंदिर से जुड़े कुछ रोचक बातें जिसके बारे में आपने शायद ही सुना होगा।
असम राज्य के गुवाहाटी जिले से आठ किलोमीटर पर कामाख्या एक जगह है जहां से भी 10 किलोमीटर ऊपर निलांचल पहाड़ी पर स्थित मां कामाख्या का मंदिर है। 52 शक्तिपीठों में से ये सबसे शक्तिशाली माना जाता है। कहते हैं कि यहां माता सती की योनि गिरि थी। जिसे एक कुंड के रुप में गुफा के अंदर रखा गया है। इस कुंड से लगातार पानी बहता रहता है ये पानी कहां से आता है इसका पता आज तक कोई नहीं लगा पाया है।
कामाख्या में लगा रहता है साधुओं का डेरा
कहते हैं कि जो मनुष्य इस शिला का पूजन, दर्शन या स्पर्श करता है वो देवी की कृपा से मोक्ष को प्राप्त करता है। यहां मांगी गई हर मुराद मां पूरी करती हैं। ये मंदिर तंत्र साधना के लिए भी प्रसिद्ध है। यहां साधु और अघोरियों का तांता लगा रहता है। यहां पर लगने वाला अम्बुवाची मेला पूरे विश्व में प्रसिद्ध है कहते हैं इस दौरान माता का मासिक धर्म चलता है जिसके कारण मंदिर के पास से गुजरने वाली ब्रह्मपुत्र नदी भी तीन दिन के लिए लाल हो जाती है।
इस दौरान मंदिर तीन दिन तक बंद रहता है और चौथे दिन भव्य मेला लगता है जिसे देखने पूरे विश्व से लोग यहां आते हैं। यहां प्रसाद के रुप में मां की खून से सने कपड़े मिलते हैं जिसे लेने के लिए हजारों की संख्या में भीड़ लगती है। इस मंदिर इस मंदिर के पास एक कुंड है जहां पर पांच दिन तक दुर्गा माता की पूजा भी की जाती है और यहां पर हजारों की संख्या में भक्त दर्शन के लिए प्रतिदिन आते हैं।
बलि प्रथा बदली गई
इस मंदिर में कामाख्या मां को बकरे, कछुए और भैंसों की बलि चढ़ाई जाती है और वहीं कुछ लोग कबूतर, मछली और गन्ना भी मां कामाख्या देवी मंदिर में चढ़ाते हैं। कहा जाता है कि प्राचीनकाल में यहां पर मानव शिशुओं की भी बलि चढ़ाई जाती थी लेकिन समय के साथ अब ये प्रथा बदल गई है। अब यहां पर जानवरों के कान की खाल का कुछ हिस्सा बलि चिह्न मानकर चढ़ा दिया जाता है। यही नहीं इन जानवरों को वहीं पर छोड़ दिया जाता है।
ये है पौराणिक कथा
कामाख्या मंदिर से कुछ दूरी पर उमानंद भैरव का मंदिर है। उमानंद भैरव ही इस शक्तिपीठ के भैरव हैं। यह मंदिर ब्रह्मपुत्र नदी के बीच में टापू पर स्थित है। ऐसी मान्यता है कि इनके दर्शन के बिना कामाख्या देवी की यात्रा अधूरी मानी जाती है। इस टापू को मध्यांचल पर्वत के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि यहीं पर समाधिस्थ सदा शिव को कामदेव ने कामबाण मारकर आहत किया था और समाधि जाग्रत होने पर शिव ने अपने तीसरे नेत्र से उन्हें भस्म किया था। भगवती के महातीर्थ नीलांचल पर्वत पर ही कामदेव को पुनः जीवनदान मिला था, इसलिए ये इलाका कामरूप के नाम से भी जाना जाता है।
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